**कथा: "सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता"**
**कथा: "सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता"**
बहुत समय पहले की बात है। द्वारका नगरी के राजा भगवान श्रीकृष्ण थे, जो न्याय, प्रेम और करुणा के प्रतीक माने जाते थे। वे केवल एक राजा नहीं थे, बल्कि ईश्वर के अवतार थे। उसी समय, एक दूर गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था — उसका नाम था सुदामा।
सुदामा और श्रीकृष्ण बचपन के मित्र थे। वे दोनों गुरुकुल में एक साथ पढ़ते थे। बाल्यावस्था में उन्होंने अनेक दिन एक साथ बिताए थे — एक ही थाली में भोजन किया, एक ही आसन पर बैठे और अनेक बार जंगल से लकड़ियाँ लाए। लेकिन जीवन की राहें उन्हें अलग कर गईं। श्रीकृष्ण द्वारका के राजा बन गए और सुदामा एक साधारण गृहस्थ ब्राह्मण रह गए।
सुदामा की पत्नी सुशीला अत्यंत धार्मिक और पतिव्रता स्त्री थी। समय बीतता गया और गरीबी ने सुदामा के घर को पूरी तरह घेर लिया। कभी-कभी तो उनके घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता। लेकिन सुदामा हमेशा ईश्वर का भजन करते रहते, उन्हें किसी बात का दुख नहीं होता। वे कहते, “जो भी होता है, भगवान की इच्छा से होता है। जो देगा, वही कृष्ण देगा।”
लेकिन पत्नी को यह सब सहन नहीं होता। एक दिन उसने सुदामा से कहा, “आपके बचपन के मित्र श्रीकृष्ण अब द्वारका के राजा हैं। क्यों न आप उनके पास जाकर कुछ सहायता मांगें? वे अवश्य आपकी सहायता करेंगे।”
सुदामा ने पहले तो मना किया। उन्हें लगा कि मित्रता में स्वार्थ नहीं होना चाहिए। लेकिन पत्नी के आग्रह पर, और बच्चों के भूख से बिलखते चेहरे देखकर, उन्होंने जाने का निर्णय लिया। जाते समय उनकी पत्नी ने घर में बचा थोड़ा-सा चावल भूनकर एक पोटली में बांध दिया और कहा, “इन्हें श्रीकृष्ण को भेंट करना।”
सुदामा नंगे पाँव, फटे पुराने वस्त्रों में द्वारका पहुंचे। नगर द्वार पर पहरेदारों ने उन्हें रोका, लेकिन जैसे ही उन्होंने कहा कि वे श्रीकृष्ण के बालसखा हैं, तुरंत उन्हें राजमहल ले जाया गया।
जैसे ही श्रीकृष्ण ने सुदामा को देखा, वे सिंहासन से उठकर दौड़े चले आए। उन्होंने अपने प्रिय मित्र को गले से लगा लिया, उनके पाँव धोए, आसन पर बैठाया, और प्रेम से उनके आंसू पोछे। श्रीकृष्ण ने कहा, “सुदामा! तू कहाँ था इतने वर्षों तक? मुझे तेरा कितना इंतज़ार था।”
राजमहल में सेवा-सत्कार के बीच सुदामा चुप रहे। वे सहायता मांगने नहीं आए थे — बस अपने मित्र से मिलने आए थे। लेकिन श्रीकृष्ण सब जानते थे। वे अंतर्यामी थे। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “सुदामा, क्या मेरे लिए कुछ लाए हो?”
सुदामा संकोच करते हुए चावल की पोटली श्रीकृष्ण को देने लगे। श्रीकृष्ण ने झटपट पोटली खोल ली और भुने हुए चावल बड़े प्रेम से खाने लगे। उन्होंने पहला ग्रास खाया, फिर दूसरा उठाया — तभी माता रुक्मिणी दौड़कर आईं और उनके हाथ से पोटली रोक दी। उन्होंने कहा, “प्रभु! अब और नहीं! आपने जो देना था, दे चुके।”
सुदामा आश्चर्य में थे। उन्होंने कुछ नहीं मांगा था, न श्रीकृष्ण ने कुछ दिया — फिर भी माता रुक्मिणी यह क्यों कह रही थीं?
अगले दिन विदा लेने से पहले श्रीकृष्ण ने सुदामा को प्रेमपूर्वक विदा किया। सुदामा ने कुछ नहीं मांगा, और श्रीकृष्ण ने कुछ नहीं कहा।
लेकिन जब सुदामा अपने गाँव लौटे, तो चौंक गए। उनका टूटा-फूटा झोपड़ा एक सुंदर महल में बदल चुका था। उनकी पत्नी रत्नों से सजी हुई द्वार पर खड़ी थी, और बच्चे नए वस्त्रों में खेल रहे थे। सब कुछ बदल गया था — गरीबी, दुःख, अभाव — सब कुछ श्रीकृष्ण की कृपा से मिट गया था।
सुदामा की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने आसमान की ओर देखा और कहा, “हे कृष्ण! तू तो सच्चा सखा है। तूने बिना माँगे सब कुछ दे दिया। तू केवल भगवान नहीं, तू प्रेम का साक्षात् रूप है।”
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**कथा का संदेश:**
यह कहानी केवल सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता की नहीं है, बल्कि यह बताती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति कभी निष्फल नहीं जाते। भगवान से सच्चा संबंध केवल माँगने का नहीं होता — वह विश्वास, प्रेम और समर्पण से बनता है। सुदामा ने श्रीकृष्ण से कुछ नहीं माँगा, लेकिन श्रीकृष्ण ने सब कुछ दे दिया, क्योंकि भगवान भक्त की भावना को पहचानते हैं।
इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि—
* **सच्ची भक्ति में स्वार्थ नहीं होता।**
* **भगवान केवल बाहरी दान नहीं, हृदय का प्रेम देखते हैं।**
* **जो भगवान पर पूरा विश्वास करता है, उसे जीवन में कोई कमी नहीं रहती।**
* **सच्चा मित्र वह होता है जो कठिन समय में आपके साथ खड़ा हो।**
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